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तुम्हारे हुस्न के नाम - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ कविता - Darsaal

तुम्हारे हुस्न के नाम

सलाम लिखता है शाएर तुम्हारे हुस्न के नाम

बिखर गया जो कभी रंग-ए-पैरहन सर-ए-बाम

निखर गई है कभी सुब्ह दोपहर कभी शाम

कहीं जो क़ामत-ए-ज़ेबा पे सज गई है क़बा

चमन में सर्व-ओ-सनोबर सँवर गए हैं तमाम

बनी बिसात-ए-ग़ज़ल जब डुबो लिए दिल ने

तुम्हारे साया-ए-रुख़सार-ओ-लब में साग़र-ओ-जाम

सलाम लिखता है शाएर तुम्हारे हुस्न के नाम

तुम्हारे हाथ पे है ताबिश-ए-हिना जब तक

जहाँ में बाक़ी है दिलदारी-ए-उरूस-ए-सुख़न

तुम्हारा हुस्न जवाँ है तो मेहरबाँ है फ़लक

तुम्हारा दम है तो दम-साज़ है हवा-ए-वतन

अगरचे तंग हैं औक़ात सख़्त हैं आलाम

तुम्हारी याद से शीरीं है तल्ख़ी-ए-अय्याम

सलाम लिखता है शाएर तुम्हारे हुस्न के नाम

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