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तुम ये कहते हो अब कोई चारा नहीं - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ कविता - Darsaal

तुम ये कहते हो अब कोई चारा नहीं

तुम ये कहते हो वो जंग हो भी चुकी!

जिस में रक्खा नहीं है किसी ने क़दम

कोई उतरा न मैदाँ में दुश्मन न हम

कोई सफ़ बन न पाई, न कोई अलम

मुंतशिर दोस्तों को सदा दे सका

अजनबी दुश्मनों का पता दे सका

तुम ये कहते हो वो जंग हो भी चुकी!

जिस में रक्खा नहीं हम ने अब तक क़दम

तुम ये कहते हो अब कोई चारा नहीं

जिस्म ख़स्ता है, हाथों में यारा नहीं

अपने बस का नहीं बार-ए-संग-ए-सितम

बार-ए-संग-ए-सितम, बार-ए-कोहसार-ए-ग़म

जिस को छू कर सभी इक तरफ़ हो गए

बात की बात में ज़ी-शरफ़ हो गए

दोस्तो, कू-ए-जानाँ की ना-मेहरबाँ

ख़ाक पर अपने रौशन लहू की बहार

अब न आएगी क्या? अब खुलेगा न क्या

उस कफ़-ए-नाज़नीं पर कोई लाला-ज़ार?

इस हज़ीं ख़ामुशी में न लौटेगा क्या

शोर-ए-आवाज़-ए-हक़, नारा-ए-गीर-ओ-दार

शौक़ का इम्तिहाँ जो हुआ सो हुआ

जिस्म-ओ-जाँ का ज़ियाँ जो हुआ सो हुआ

सूद से पेशतर है ज़ियाँ और भी

दोस्तो, मातम-ए-जिस्म-ओ-जाँ और भी

और भी तल्ख़-तर इम्तिहाँ और भी

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