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शोरिश-ए-ज़ंजीर बिस्मिल्लाह - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ कविता - Darsaal

शोरिश-ए-ज़ंजीर बिस्मिल्लाह

हुई फिर इमतिहान-ए-इशक़ की तदबीर बिस्मिल्लाह

हर इक जानिब मचा कुहराम-ए-दार-ओ-गीर बिस्मिल्लाह

गली-कूचों में बिखरी शोरिश-ए-ज़ंजीर बिस्मिल्लाह

दर-ए-ज़िंदाँ पे बुलवाए गए फिर से जुनूँ वाले

दरीदा दामनों वाले परेशाँ गेसुओं वाले

जहाँ में दर्द-ए-दिल की फिर हुई तौक़ीर बिस्मिल्लाह

हुई फिर इमतिहान-ए-इशक़ की तदबीर बिस्मिल्लाह

गिनो सब दाग़ दिल के हसरतें शौक़ें निगाहों की

सर-ए-दरिया परस्तिश हो रही है फिर गुनाहों की

करो यारो शुमार-ए-नाला-ए-शब-गीर बिस्मिल्लाह

सितम की दास्ताँ कुश्ता दिलों का माजरा कहिए

जो ज़ेर-ए-लब न कहते थे वो सब कुछ बरमला कहिए

मुसिर है मोहतसिब राज़-ए-शहीदान-ए-वफ़ा कहिए

लगी है हर्फ़-ए-ना-गुफ़्ता पे अब ताज़ीर अल्लाह

सर-ए-मक़्तल चलो बे-ज़हमत-ए-तक़सीर बिस्मिल्लाह

हुई फिर इमतिहान-ए-इशक़ की तदबीर बिस्मिल्लाह

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