पैरिस
दिन ढला कूचा ओ बाज़ार में सफ़-बस्ता हुईं
ज़र्द-रू रौशनियाँ
उन में हर एक के कश्कोल से बरसें रिम-झिम
इस भरे शहर की नासूदगियाँ
दूर पस-मंज़र-ए-अफ़्लाक में धुँदलाने लगे
अज़्मत-ए-रफ़्ता के निशाँ
पेश-ए-मंज़र में
किसी साया-ए-दीवार से लिपटा हुआ साया कोई
दूसरे साए की मौहूम सी उम्मीद लिए
रोज़-मर्रा की तरह
ज़ेर-ए-लब
शरह-ए-बेदर्दी-ए-अय्याम की तम्हीद लिए
और कोई अजनबी
इन रौशनियों सायों से कतराता हुआ
अपने बे-ख़्वाब शबिस्ताँ की तरफ़ जाता हुआ
(1988) Peoples Rate This