नज़्म
तह-ब-तह दिल की कुदूरत
मेरी आँखों में उमँड आई तो कुछ चारा न था
चारा-गर की मान ली
और मैं ने गर्द-आलूद आँखों को लहू से धो लिया
मैं ने गर्द-आलूद आँखों को लहू से धो लिया
और अब हर शक्ल-ओ-सूरत
आलम-ए-मौजूद की हर एक शय
मेरी आँखों के लहू से इस तरह हम-रंग है
ख़ुर्शीद का कुंदन लहू
महताब की चाँदी लहू
सुब्हों का हँसना भी लहू
रातों का रोना भी लहू
हर शजर मीनार-ए-ख़ूँ हर फूल ख़ूनीं-दीदा है
हर नज़र इक तार-ए-ख़ूँ हर अक्स ख़ूँ-बालीदा है
मौज-ए-ख़ूँ जब तक रवाँ रहती है उस का सुर्ख़ रंग
जज़्बा-ए-शौक़-ए-शहादत दर्द, ग़ैज़ ओ ग़म का रंग
और थम जाए तो कजला कर
फ़क़त नफ़रत का शब मौत का
हर इक रंग के मातम का रंग
चारा-गर ऐसा न होने दे
कहीं से ला कोई सैलाब-ए-अश्क
आब-ए-वुज़ू
जिस में धुल जाएँ तो शायद धुल सके
मेरी आँखों मेरी गर्द-आलूद आँखों का लहू
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