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नज़्म - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ कविता - Darsaal

नज़्म

तह-ब-तह दिल की कुदूरत

मेरी आँखों में उमँड आई तो कुछ चारा न था

चारा-गर की मान ली

और मैं ने गर्द-आलूद आँखों को लहू से धो लिया

मैं ने गर्द-आलूद आँखों को लहू से धो लिया

और अब हर शक्ल-ओ-सूरत

आलम-ए-मौजूद की हर एक शय

मेरी आँखों के लहू से इस तरह हम-रंग है

ख़ुर्शीद का कुंदन लहू

महताब की चाँदी लहू

सुब्हों का हँसना भी लहू

रातों का रोना भी लहू

हर शजर मीनार-ए-ख़ूँ हर फूल ख़ूनीं-दीदा है

हर नज़र इक तार-ए-ख़ूँ हर अक्स ख़ूँ-बालीदा है

मौज-ए-ख़ूँ जब तक रवाँ रहती है उस का सुर्ख़ रंग

जज़्बा-ए-शौक़-ए-शहादत दर्द, ग़ैज़ ओ ग़म का रंग

और थम जाए तो कजला कर

फ़क़त नफ़रत का शब मौत का

हर इक रंग के मातम का रंग

चारा-गर ऐसा न होने दे

कहीं से ला कोई सैलाब-ए-अश्क

आब-ए-वुज़ू

जिस में धुल जाएँ तो शायद धुल सके

मेरी आँखों मेरी गर्द-आलूद आँखों का लहू

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