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मेरे मिलने वाले - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ कविता - Darsaal

मेरे मिलने वाले

वो दर खुला मेरे ग़म-कदे का

वो आ गए मेरे मिलने वाले

वो आ गई शाम अपनी राहों में

फ़र्श-ए-अफ़्सुर्दगी बिछाने

वो आ गई रात चाँद तारों को

अपनी आज़ुर्दगी सुनाने

वो सुब्ह आई दमकते नश्तर से

याद के ज़ख़्म को मनाने

वो दोपहर आई, आस्तीं में

छुपाए शोलों के ताज़ियाने

ये आए सब मेरे मिलने वाले

कि जिन से दिन रात वास्ता है

पे कौन कब आया, कब गया है

निगाह ओ दिल को ख़बर कहाँ है

ख़याल सू-ए-वतन रवाँ है

समुंदरों की अयाल थामे

हज़ार वहम-ओ-गुमाँ सँभाले

कई तरह के सवाल थामे

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