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मंज़र - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ कविता - Darsaal

मंज़र

आसमाँ आज इक बहर-ए-पुर-शोर है

जिस में हर-सू रवाँ बादलों के जहाज़

उन के अर्शे पे किरनों के मस्तूल हैं

बादबानों की पहने हुए फ़र्ग़लें

नील में गुम्बदों के जज़ीरे कई

एक बाज़ी में मसरूफ़ है हर कोई

वो अबाबील कोई नहाती हुई

कोई चील ग़ोते में जाती हुई

कोई ताक़त नहीं इस में ज़ोर-आज़मा

कोई बेड़ा नहीं है किसी मुल्क का

इस की तह में कोई आबदोज़ें नहीं

कोई रॉकेट नहीं कोई तोपें नहीं

यूँ तो सारे अनासिर हैं याँ ज़ोर में

अम्न कितना है इस बहर-ए-पुर-शोर में

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