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मेजर-इसहाक़ की याद में - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ कविता - Darsaal

मेजर-इसहाक़ की याद में

लो तुम भी गए हम ने तो समझा था कि तुम ने

बाँधा था कोई यारों से पैमान-ए-वफ़ा और

ये अहद कि ता-उम्र रवाँ साथ रहोगे

रस्ते में बिछड़ जाएँगे जब अहल-ए-सफ़ा और

हम समझे थे सय्याद का तरकश हुआ ख़ाली

बाक़ी था मगर उस में अभी तीर-ए-क़ज़ा और

हर ख़ार रह-ए-दश्त-ए-वतन का है सवाली

कब देखिए आता है कोई आबला-पा और

आने में तअम्मुल था अगर रोज़-ए-जज़ा को

अच्छा था ठहर जाते अगर तुम भी ज़रा और

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