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जिस रोज़ क़ज़ा आएगी - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ कविता - Darsaal

जिस रोज़ क़ज़ा आएगी

किस तरह आएगी जिस रोज़ क़ज़ा आएगी

शायद इस तरह कि जिस तौर कभी अव्वल-ए-शब

बे-तलब पहले-पहल मर्हमत-ए-बोसा-ए-लब

जिस से खुलने लगें हर सम्त तिलिस्मात के दर

और कहीं दूर से अंजान गुलाबों की बहार

यक-ब-यक सीना-ए-महताब को तड़पाने लगे

शायद इस तरह कि जिस तौर कभी आख़िर-ए-शब

नीम-वा कलियों से सरसब्ज़ सहर

यक-ब-यक हुजरा-ए-महबूब में लहराने लगे

और ख़ामोश दरीचों से ब-हंगाम-ए-रहील

झनझनाते हुए तारों की सदा आने लगे

किस तरह आएगी जिस रोज़ क़ज़ा आएगी

शायद इस तरह कि जिस तौर तह-ए-नोक-ए-सिनाँ

कोई रग वाहिमा-ए-दर्द से चिल्लाने लगे

और क़ज़्ज़ाक़-ए-सिनाँ-दस्त का धुँदला साया

अज़-कराँ-ता-ब-कराँ दहर पे मंडलाने लगे

किस तरह आएगी जिस रोज़ क़ज़ा आएगी

ख़्वाह क़ातिल की तरह आए कि महबूब-सिफ़त

दिल से बस होगी यही हर्फ़-ए-विदाअ की सूरत

लिल्लाहिल-हम्द ब-अनजाम-ए-दिल-ए-दिल-ज़दगाँ

कलमा-ए-शुक्र ब-नाम-ए-लब-ए-शीरीं-दहनाँ

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