ईरानी तलबा के नाम
ये कौन सख़ी हैं
जिन के लहू की
अशरफ़ियाँ छन-छन, छन-छन,
धरती के पैहम प्यासे
कश्कोल में ढलती जाती हैं
कश्कोल को भरती हैं
ये कौन जवाँ हैं अर्ज़-ए-अजम
ये लख-लुट
जिन के जिस्मों की
भरपूर जवानी का कुंदन
यूँ ख़ाक में रेज़ा रेज़ा है
यूँ कूचा कूचा बिखरा है
ऐ अर्ज़-ए-अजम, ऐ अर्ज़-ए-अजम!
क्यूँ नोच के हँस हँस फेंक दिए
उन आँखों ने अपने नीलम
उन होंटों ने अपने मर्जां
उन हाथों की ''बे-कल चाँदी
किस काम आई किस हाथ लगी''
ऐ पूछने वाले परदेसी
ये तिफ़्ल ओ जवाँ
उस नूर के नौ-रस मोती हैं
उस आग की कच्ची कलियाँ हैं
जिस मीठे नूर और कड़वी आग
से ज़ुल्म की अंधी रात में फूटा
सुब्ह-ए-बग़ावत का गुलशन
और सुब्ह हुई मन-मन, तन-तन,
उन जिस्मों का चाँदी सोना
उन चेहरों के नीलम, मर्जां,
जग-मग जग-मग रुख़शां रुख़शां
जो देखना चाहे परदेसी
पास आए देखे जी भर कर
ये ज़ीस्त की रानी का झूमर
ये अम्न की देवी का कंगन!
(1880) Peoples Rate This