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हम तो मजबूर-ए-वफ़ा हैं - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ कविता - Darsaal

हम तो मजबूर-ए-वफ़ा हैं

तुझ को कितनों का लहू चाहिए ऐ अर्ज़-ए-वतन

जो तिरे आरिज़-ए-बे-रंग को गुलनार करें

कितनी आहों से कलेजा तिरा ठंडा होगा

कितने आँसू तिरे सहराओं को गुलज़ार करें

तेरे ऐवानों में पुर्ज़े हुए पैमाँ कितने

कितने वादे जो न आसूदा-ए-इक़रार हुए

कितनी आँखों को नज़र खा गई बद-ख़्वाहों की

ख़्वाब कितने तिरी शह-राहों में संगसार हुए

''बला-कशान-ए-मोहब्बत पे जो हुआ सो हुआ

जो मुझ पे गुज़री मत उस से कहो, हुआ सो हुआ

मबादा हो कोई ज़ालिम तिरा गरेबाँ-गीर

लहू के दाग़ तू दामन से धो, हुआ सो हुआ''

हम तो मजबूर-ए-वफ़ा हैं मगर ऐ जान-ए-जहाँ

अपने उश्शाक़ से ऐसे भी कोई करता है

तेरी महफ़िल को ख़ुदा रक्खे अबद तक क़ाएम

हम तो मेहमाँ हैं घड़ी भर के हमारा क्या है

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