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हज़र करो मिरे तन से - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ कविता - Darsaal

हज़र करो मिरे तन से

सजे तो कैसे सजे क़त्ल-ए-आम का मेला

किसे लुभाएगा मेरे लहू का वावैला

मिरे नज़ार बदन में लहू ही कितना है

चराग़ हो कोई रौशन न कोई जाम भरे

न इस से आग ही भड़के न उस से प्यास बुझे

मिरे फ़िगार बदन में लहू ही कितना है

मगर वो ज़हर-ए-हलाहल भरा है नस नस में

जिसे भी छेदो हर इक बूँद क़हर-ए-अफ़ई है

हर इक कशीद है सदियों के दर्द ओ हसरत की

हर इक में मोहर-ब-लब ग़ैज़ ओ ग़म की गर्मी है

हज़र करो मिरे तन से ये सम का दरिया है

हज़र करो कि मिरा तन वो चोब-ए-सहरा है

जिसे जलाओ तो सेहन-ए-चमन में दहकेंगे

बजाए-सर्व-ओ-समन मेरी हड्डियों के बबूल

इसे बिखेरा तो दश्त-ओ-दमन में बिखरेगी

बजाए-मुश्क-ए-सबा मेरी जान-ए-ज़ार की धूल

हज़र करो कि मिरा दिल लहू का प्यासा है

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