ग़ुबार-ए-ख़ातिर-ए-महफ़िल ठहर जाए
कहीं तो कारवान-ए-दर्द की मंज़िल ठहर जाए
किनारे आ लगे उम्र-ए-रवाँ या दिल ठहर जाए
अमाँ कैसी कि मौज-ए-ख़ूँ अभी सर से नहीं गुज़री
गुज़र जाए तो शायद बाज़ू-ए-क़ातिल ठहर जाए
कोई दम बादबान-ए-कश्ती-ए-सहबा को तह रक्खो
ज़रा ठहरो ग़ुबार-ए-ख़ातिर-ए-महफ़िल ठहर जाए
ख़ुम-ए-साक़ी में जुज़ ज़हर-ए-हलाहल कुछ नहीं बाक़ी
जो हो महफ़िल में इस इकराम के क़ाबिल ठहर जाए
हमारी ख़ामुशी बस दिल से लब तक एक वक़्फ़ा है
ये तूफ़ाँ है जो पल भर बर-लब-ए-साहिल ठहर जाए
निगाह-ए-मुंतज़िर कब तक करेगी आईना-बंदी
कहीं तो दश्त-ए-ग़म में यार का महमिल ठहर जाए
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