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दो इश्क़ - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ कविता - Darsaal

दो इश्क़

(1)

ताज़ा हैं अभी याद में ऐ साक़ी-ए-गुलफ़ाम

वो अक्स-ए-रुख़-ए-यार से लहके हुए अय्याम

वो फूल सी खुलती हुई दीदार की साअत

वो दिल सा धड़कता हुआ उम्मीद का हंगाम

उम्मीद कि लौ जागा ग़म-ए-दिल का नसीबा

लो शौक़ की तरसी हुई शब हो गई आख़िर

लो डूब गए दर्द के बे-ख़्वाब सितारे

अब चमकेगा बे-सब्र निगाहों का मुक़द्दर

इस बाम से निकलेगा तिरे हुस्न का ख़ुर्शीद

इस कुंज से फूटेगी किरन रंग-ए-हिना की

इस दर से बहेगा तिरी रफ़्तार का सीमाब

उस राह पे फैलेगी शफ़क़ तेरी क़बा की

फिर देखे हैं वो हिज्र के तपते हुए दिन भी

जब फ़िक्र-ए-दिल-ओ-जाँ में फ़ुग़ाँ भूल गई है

हर शब वो सियह बोझ कि दिल बैठ गया है

हर सुब्ह की लौ तीर सी सीने में लगी है

तंहाई में क्या क्या न तुझे याद किया है

क्या क्या न दिल-ए-ज़ार ने ढूँडी हैं पनाहें

आँखों से लगाया है कभी दस्त-ए-सबा को

डाली हैं कभी गर्दन-ए-महताब में बाहें

(2)

चाहा है इसी रंग में लैला-ए-वतन को

तड़पा है इसी तौर से दिल उस की लगन में

ढूँडी है यूँही शौक़ ने आसाइश-ए-मंज़िल

रुख़्सार के ख़म में कभी काकुल की शिकन में

उस जान-ए-जहाँ को भी यूँही क़ल्ब-ओ-नज़र ने

हँस हँस के सदा दी कभी रो रो के पुकारा

पूरे किए सब हर्फ़-ए-तमन्ना के तक़ाज़े

हर दर्द को उजयाला हर इक ग़म को सँवारा

वापस नहीं फेरा कोई फ़रमान जुनूँ का

तन्हा नहीं लौटी कभी आवाज़ जरस की

ख़ैरिय्यत-ए-जाँ राहत-ए-तन सेह्हत-ए-दामाँ

सब भूल गईं मस्लिहतें अहल-ए-हवस की

इस राह में जो सब पे गुज़रती है वो गुज़री

तन्हा पस-ए-ज़िंदाँ कभी रुस्वा सर-ए-बाज़ार

गरजे हैं बहुत शैख़ सर-ए-गोशा-ए-मिम्बर

कड़के हैं बहुत अहल-ए-हकम बर-सर-ए-दरबार

छोड़ा नहीं ग़ैरों ने कोई नावक-ए-दुश्नाम

छूटी नहीं अपनों से कोई तर्ज़-ए-मलामत

उस इश्क़ न उस इश्क़ पे नादिम है मगर दिल

हर दाग़ है इस दिल में ब-जुज़-दाग़-ए-नदामत

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