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दरीचा - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ कविता - Darsaal

दरीचा

गड़ी हैं कितनी सलीबें मिरे दरीचे में

हर एक अपने मसीहा के ख़ूँ का रंग लिए

हर एक वस्ल-ए-ख़ुदा-वंद की उमंग लिए

किसी पे करते हैं अब्र-ए-बहार को क़ुर्बां

किसी पे क़त्ल मह-ए-ताबनाक करते हैं

किसी पे होती है सरमस्त शाख़-सार-ए-दो-नीम

किसी पे बाद-ए-सबा को हलाक करते हैं

हर आए दिन ये ख़ुदावंदगान-ए-मेहर-ओ-जमाल

लहू में ग़र्क़ मिरे ग़म-कदे में आते हैं

और आए दिन मिरी नज़रों के सामने उन के

शहीद जिस्म सलामत उठाए जाते हैं

(2003) Peoples Rate This

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