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'शोपीं' का नग़्मा बजता है - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ कविता - Darsaal

'शोपीं' का नग़्मा बजता है

(2)

छलनी है अँधेरे का सीना, बरखा के भाले बरसे हैं

दीवारों के आँसू हैं रवाँ, घर ख़ामोशी में डूबे हैं

पानी में नहाए हैं बूटे

गलियों में हू का फेरा है

'शोपीं' का नग़्मा बजता है

इक ग़म-गीं लड़की के चेहरे पर चाँद की ज़र्दी छाई है

जो बर्फ़ गिरी थी इस पे लहू के छींटों की रुशनाई है

ख़ूँ का हर दाग़ दमकता है

'शोपीं' का नग़्मा बजता है

कुछ आज़ादी के मतवाले, जाँ कफ़ पे लिए मैदाँ में गए

हर-सू दुश्मन का नर्ग़ा था, कुछ बच निकले, कुछ खेत रहे

आलम में उन का शोहरा है

'शोपीं' का नग़्मा बजता है

इक कूंज को सखियाँ छोड़ गईं आकाश की नीली राहों में

वो याद में तन्हा रोती थी, लिपटाए अपनी बाहोँ में

इक शाहीं उस पर झपटा है

'शोपीं' का नग़्मा बजता है

ग़म ने साँचे में ढाला है

इक बाप के पत्थर चेहरे को

मुर्दा बेटे के माथे को

इक माँ ने रो कर चूमा है

'शोपीं' का नग़्मा बजता है

फिर फूलों की रुत लौट आई

और चाहने वालों की गर्दन में झूले डाले बाहोँ ने

फिर झरने नाचे छन छन छन

अब बादल है न बरखा है

'शोपीं' का नग़्मा बजता है

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