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ऐ हबीब-ए-अम्बर-दस्त! - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ कविता - Darsaal

ऐ हबीब-ए-अम्बर-दस्त!

किसी के दस्त-ए-इनायत ने कुंज-ए-ज़िंदाँ में

किया है आज अजब दिल-नवाज़ बंद-ओ-बस्त

महक रही है फ़ज़ा ज़ुल्फ़-ए-यार की सूरत

हवा है गर्मी-ए-ख़ुशबू से इस तरह सरमस्त

अभी अभी कोई गुज़रा है गुल-बदन गोया

कहीं क़रीब से, गेसू-ब-दोश, ग़ुंचा-ब-दस्त

लिए है बू-ए-रिफ़ाक़त अगर हवा-ए-चमन

तो लाख पहरे बिठाएँ क़फ़स पे ज़ुल्म-परस्त

हमेशा सब्ज़ रहेगी वो शाख़-ए-मेहर-अो-वफ़ा

कि जिस के साथ बंधी है दिलों की फ़तह ओ शिकस्त

ये शेर-ए-हाफ़िज़-ए-शीराज़, ऐ सबा! कहना

मिले जो तुझ से कहीं वो हबीब-ए-अम्बर-दस्त

''ख़लल-पज़ीर बुअद हर बिना कि मय-बीनी

ब-जुज़ बिना-ए-मोहब्बत कि ख़ाली अज़-ख़लल-अस्त''

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