यूँ बहार आई है इस बार कि जैसे क़ासिद
यूँ बहार आई है इस बार कि जैसे क़ासिद
कूचा-ए-यार से बे-नैल-ए-मराम आता है
हर कोई शहर में फिरता है सलामत-दामन
रिंद मय-ख़ाने से शाइस्ता-ख़िराम आता है
हवस-ए-मुत्रिब-ओ-साक़ी में परेशाँ अक्सर
अब्र आता है कभी माह-ए-तमाम आता है
शौक़ वालों की हज़ीं महफ़िल-ए-शब में अब भी
आमद-ए-सुब्ह की सूरत तिरा नाम आता है
अब भी एलान-ए-सहर करता हुआ मस्त कोई
दाग़-ए-दिल कर के फ़रोज़ाँ सर-ए-शाम आता है
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