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ताक़त के सारे ज़ोर को ख़ामोश कर दिया - फ़ैय्याज़ रश्क़ कविता - Darsaal

ताक़त के सारे ज़ोर को ख़ामोश कर दिया

ताक़त के सारे ज़ोर को ख़ामोश कर दिया

ख़ामोशियों ने शोर को ख़ामोश कर दिया

जिस डोर से निकलती रही प्यार की सदा

ज़ालिम ने ऐसे डोर को ख़ामोश कर दिया

सब कुछ तो ठीक था जो नज़र पाँव पर पड़ी

मस्ती में डूबे मोर को ख़ामोश कर दिया

वो भीड़ थी जो टूट पड़ी और उस जगह

हाथों में आए चोर को ख़ामोश कर दिया

अक्सर यही हुआ है कि जिस्मों की आग ने

जिस्मों के पोर पोर को ख़ामोश कर दिया

ऐ दोस्त मय से दूर ही रहना कि उस ने तो

कितने ही बादा-ख़ोर ख़ामोश कर दिया

'फ़य्याज़' हम दिया नहीं जिस को कि आप ने

शब-भर जलाया भोर को ख़ामोश कर दिया

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