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जहाँ में ख़ुद को बनाने में देर लगती है - फ़ैय्याज़ रश्क़ कविता - Darsaal

जहाँ में ख़ुद को बनाने में देर लगती है

जहाँ में ख़ुद को बनाने में देर लगती है

किसी मक़ाम पे आने में देर लगती है

उरूज-ए-वक़्त पे जाने में देर लगती है

हर एक इल्म को पाने में देर लगती है

फिर उन के पास भी जाने में देर लगती है

हमेशा उन को मनाने में देर लगती है

हमारे शहर मोहल्ले गली का अब माहौल

बिगड़ गया तो बनाने में देर लगती है

अना की सोच को या फिर अना के होंटों को

ग़मों का हाल बताने में देर लगती है

है हुस्न वालों का अंदाज़ ये ज़माने में

है इश्क़ फिर भी जताने में देर लगती है

ये बात आएगी तुम को समझ में कब 'फ़य्याज़'

बुलंदी मिलने में पाने में देर लगती है

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