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हम-ज़ाद - फ़ैसल हाश्मी कविता - Darsaal

हम-ज़ाद

जो चलता है तो क़दमों की कोई आहट नहीं होती

तलाश-ए-फ़र्क़-ए-नेक-ओ-बद की ख़्वाहिश को लिए दिल में

गुज़रता है ग़ुबार-ए-ज़ीस्त की गुम-नाम गलियों से

धुँदलका सा कोई है या कोई बे-ख़्वाब सी शब है

कोई बे-नूर रस्ता है कि जिस में खो गया हूँ मैं

कोई आवाज़ है जो इक दरीदा पैरहन पहने

हुजूम-ए-बे-सर-ओ-पा में कई सदियों से रहती है

गुज़रती है तो हर जानिब सुकूत-ए-मर्ग बहता है

खंडर में साँस लेता है

कोई बे-ख़ानुमाँ साया मुझे आवाज़ देता है

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