जिस्म से आगे की मंज़िल
जिस्म की आग कहाँ बुझती है
लोग किस वक़्त मोहब्बत का नशा सूँघते हैं
कितने टुकड़ों में बिखरते हैं वो
और फिर जोड़ते हैं
एक इक कर के बदन के आ'ज़ा
और यही कहते हैं
ख़ाक के क़ुर्ब की बेताब कशिश
एक बे-फ़ैज़ सी सर-गर्मी है
जिस्म से आगे की मंज़िल नहीं देखी हम ने
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