रोज़ आसेब आते जाते हैं
ऐसा क्या है ग़रीब-ख़ाने में
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ख़ौफ़ ग़र्क़ाब हो गया 'फ़ैसल'
कभी देखा ही नहीं इस ने परेशाँ मुझ को
दुख नहीं है कि जल रहा हूँ मैं
उस को जाने दे अगर जाता है
मैं ज़ख़्म खा के गिरा था कि थाम उस ने लिया
चंद ख़ुशियों को बहम करने में
आज फिर आईना देखा है कई साल के बाद
इन लोगों में रहने से हम बेघर अच्छे थे
ये भी नहीं कि दस्त-ए-दुआ तक नहीं गया
आवाज़ दे रहा था कोई मुझ को ख़्वाब में
रात सितारों वाली थी और धूप भरा था दिन