कभी देखा ही नहीं इस ने परेशाँ मुझ को
मैं कि रहता हूँ सदा अपनी निगहबानी में
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हर शख़्स परेशान है घबराया हुआ है
'फ़ैसल' मुकालिमा था हवाओं का फूल से
गिर जाए जो दीवार तो मातम नहीं करते
रोज़ आसेब आते जाते हैं
चंद ख़ुशियों को बहम करने में
जिस्म थकता नहीं चलने से कि वहशत का सफ़र
शजर से बिछड़ा हुआ बर्ग-ए-ख़ुश्क हूँ 'फ़ैसल'
किसी ने कैसे ख़ज़ाने में रख लिया है मुझे
उस ने देखा जो मुझे आलम-ए-हैरानी में
आवाज़ दे रहा था कोई मुझ को ख़्वाब में
अब वो तितली है न वो उम्र तआ'क़ुब वाली
मैं ग़ार में था और हवा के बग़ैर था