आज फिर आईना देखा है कई साल के बाद
कहीं इस बार भी उजलत तो नहीं की गई है
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उस को जाने दे अगर जाता है
अब वो तितली है न वो उम्र तआ'क़ुब वाली
रख़्त-ए-सफ़र है इस में क़रीना भी चाहिए
इन लोगों में रहने से हम बेघर अच्छे थे
मैं ज़ख़्म खा के गिरा था कि थाम उस ने लिया
क्या इल्म कि रोते हों तो मर जाते हों 'फ़ैसल'
ये भी नहीं कि दस्त-ए-दुआ तक नहीं गया
उस ने देखा जो मुझे आलम-ए-हैरानी में
रोज़ आसेब आते जाते हैं
तेरी आँखें न रहीं आईना-ख़ाना मिरे दोस्त
कभी भुलाया कभी याद कर लिया उस को
अदावतों में जो ख़ल्क़-ए-ख़ुदा लगी हुई है