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तेरी आँखें न रहीं आईना-ख़ाना मिरे दोस्त - फ़ैसल अजमी कविता - Darsaal

तेरी आँखें न रहीं आईना-ख़ाना मिरे दोस्त

तेरी आँखें न रहीं आईना-ख़ाना मिरे दोस्त

कितनी तेज़ी से बदलता है ज़माना मिरे दोस्त

जाने किस काम में मसरूफ़ रहा बरसों तक

याद आया ही नहीं तुझ को भुलाना मिरे दोस्त

पूछना मत कि ये क्या हाल बना रक्खा है

आईना बन के मिरा दिल न दुखाना मिरे दोस्त

इस मुलाक़ात में जो ग़ैर-ज़रूरी हो जाए

याद रहता है किसे हाथ मिलाना मिरे दोस्त

देखना मुझ को मगर मेरी पज़ीराई को

अपनी आँखों में सितारे न सजाना मिरे दोस्त

अब वो तितली है न वो उम्र तआ'क़ुब वाली

मैं न कहता था बहुत दूर न जाना मरे दोस्त

हिज्र तक़दीर में लिक्खा था कि मजबूरी थी

छोड़ इस बात से क्या मिलना मिलाना मिरे दोस्त

तू ने एहसान किया अपना बना कर मुझ को

वर्ना मैं क्या था हक़ीक़त न फ़साना मिरे दोस्त

इस कहानी में किसे कौन कहाँ छोड़ गया

याद आ जाए तो मुझ को भी बताना मिरे दोस्त

छोड़ आया हूँ हवाओं की निगहबानी में

वो समुंदर वो जज़ीरा वो ख़ज़ाना मिरे दोस्त

ऐसे रस्तों पे जो आपस में कहीं मिलते हों

क्यूँ न उस मोड़ से हो जाएँ रवाना मिरे दोस्त

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