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ज़बानों का बोसा - फ़हमीदा रियाज़ कविता - Darsaal

ज़बानों का बोसा

ज़बानों के रस में ये कैसी महक है

ये बोसा कि जिस से मोहब्बत की सहबा की उड़ती है ख़ुश्बू

ये बद-मस्त ख़ुश्बू जो गहरा ग़ुनूदा नशा ला रही है

ये कैसा नशा है

मेरे ज़ेहन के रेज़े रेज़े में एक आँख सी खुल गई है

तुम अपनी ज़बाँ मेरे मुँह में रखे जैसे पाताल से मेरी जाँ खींचते हो

ये भीगा हुआ गर्म ओ तारीक बोसा

अमावस की काली बरसती हुई रात जैसे उमड़ती चली आ रही है

कहीं कोई साअत अज़ल से रमीदा

मिरी रूह के दश्त में उड़ रही थी

वो साअत क़रीं-तर चली आ रही है

मुझे ऐसा लगता है

तारीकियों के

लरज़ते हुए पुल को

मैं पार करती चली जा रही हूँ

ये पुल ख़त्म होने को है

और अब

उस के आगे

कहीं रौशनी है

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