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तिफ़्लाँ की तो कुछ तक़्सीर न थी - फ़हमीदा रियाज़ कविता - Darsaal

तिफ़्लाँ की तो कुछ तक़्सीर न थी

ऐ दोस्त पुराने पहचाने

हम कितनी मुद्दत बाद मिले

और कितनी सदियों बाद मिली

ये एक निगाह-ए-महर-ओ-सख़ा

जो अपनी सख़ा से ख़ुद पुर-नम

बैठो तो ज़रा

बतलाओ तो क्या

ये सच है मेरे तआक़ुब में

फिरता है हुजूम-ए-संग-ज़नाँ?

क्या नील बहुत हैं चेहरे पर?

क्या कासा-ए-सर है ख़ून से तर?

पैवंद-ए-क़बा दुश्नाम बहुत

पैवस्त-ए-जिगर इल्ज़ाम बहुत

ये नज़र-ए-करम क्यूँ है पुर-नम?

जब निकले कू-ए-मलामत में

इक ग़ौग़ा तो हम ने भी सुना

तिफ़्लाँ की तो कुछ तक़्सीर न थी

हम आप ही थे यूँ ख़ुद-रफ़्ता

मदहोशी ने मोहलत ही न दी

हम मुड़ के नज़ारा कर लेते

बचने की तो सूरत ख़ैर न थी

दरमाँ का ही चारा कर लेते

पल भर भी हमारे कार-ए-जुनूँ

ग़फ़लत जो गवारा कर लेते

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