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नज़्र-ए-फ़िराक़ - फ़हमीदा रियाज़ कविता - Darsaal

नज़्र-ए-फ़िराक़

ऐ दिल-ए-काफ़िर इज्ज़ से मुनकिर आज तिरा सर ख़म क्यूँ है

तेरी हटेली शिरयानों में ये बेबस मातम क्यूँ है

आँख तो रोना भूल गई थी फिर हर मंज़र नम क्यूँ है

मत रोको बहने दो आँसू किसी को करते हैं प्रणाम

आप झुका है झुकने दो सर छुपा था उस में कोई सलाम

शायद उस के हुज़ूर में हो तुम जिस को कहते हैं अंजाम

वो हस्ती की सरहद-ए-आख़िर हुआ जहाँ हर सफ़र तमाम

बेबस है इंसाँ बेबस है तकती रह गई रोती शाम

उठ गया कोई भरी दुनिया से बाक़ी रहे ख़ुदा का नाम

या फिर काग़ज़ पर परछाईं मिलेगा जिस को सब्त-ए-दवाम

ये टुकड़े इंसानी दिल के शाएर और शाएर का कलाम

नाज़ करूँगी ख़ुश-बख़्ती में मैं ने 'फ़िराक़' को देखा था

उजड़े घर में वो तहज़ीबों के संगम पर बैठा था

गर्म हम-आग़ोशी सदियों की होगी कितनी प्यार भरी

जिस की बाँहों में खेली थी उस की सोच की सुंदरता

शेर का दिल शफ़्फ़ाफ़ था इतना जैसे आईना-ए-तारीख़

क्या भर पूर विसाल था जिस ने उस शाएर को जन्म दिया

गर तारीख़ ने पागल हो कर ख़ुद अपना सर फोड़ा है

ख़ून उछाला है गलियों में अपना हंडोला तोड़ा है

छींट न थी दामन पर उस के कौन घाट धो बैठा था

जिसे समझते हो ना-मुम्किन वो उस इंसाँ जैसा था

इंसाँ भी इतना मामूली जैसे अपना हम-साया

अपने शेर सुनाना उस का और ख़ुद हैराँ हो जाना

बातों में मासूम महक थी आँखों में बेचैन लपक

ख़ामोशी के वक़्फ़े यूँ जैसे उस ने कुछ देखा था

पीड़ बहुत झेली थी उस ने इतनी बात तो ज़ाहिर थी

लहजा में शोख़ी थी जैसे राख में चमके अँगारा

संगम के पानी पर मैं ने देखी थी कैसी तस्वीर

उड़ा लहक कर इक जल-पंछी खींच गया पानी पे लकीर

जमुना की नीली गहराई भेद भरी चुप से बोझल

गँगा के धारे की जुम्बिश उजली ताक़त और बे-कल

इस पानी में अक्स डालता आसमान का इक टुकड़ा

मिट्टी के बुत हरे नारियल चंदन लगा कोई मुखड़ा

वो धारों पर नाव खेता सूखा पंजर माँझी का

दान के पैसे गिनता पंडित ताँबा सूरज सांझी का

जमुना पर मीनार क़िला के गुम्बद का तिरछा साया

पाकिस्तान से आए मुहाजिर गेंदे की टूटी माला

पानी में चप्पू की शप शप बातों के टूटे टुकड़े

यहीं कहीं पर हम से ओझल सरस्वती भी बहती है

जो समझी जो आगे समझूँ छलक रहा है दिल का जाम

वो मंज़र जो ख़ुद से बड़ा था उस का घेरा तुम्हारे नाम

ये कमरे का माँद उजाला बाहर हूक पपिहे की

खिड़की पर बूँदों की दस्तक साँसें भरती ख़ामोशी

पूरी बात नहीं बतलाता गूँगे आँसू रो देना

तेरी धरती सह न सकेगी इतने हुस्न को खो देना

तन्हा और अपाहिज बूढ़े तुझे न मरने देंगे लोग

अभी तो जीवन बाँझ नहीं है फिर तुझ को जन्मेंगे लोग

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