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ख़ाकम-ब-दहन - फ़हमीदा रियाज़ कविता - Darsaal

ख़ाकम-ब-दहन

मैं आज़िम-ए-मय-ख़ाना थी कल रात कि देखा

इक कूचा-ए-पुर-शोर में असहाब-ए-तरीक़त

थे दस्त ओ गिरेबाँ

ख़ाकम-ब-दहन पेच अमामों के खुले थे

फ़तवों की वो बोछाड़ कि तबक़ात थे लर्ज़ां

दास्तान-ए-मुबारक में थीं रीशान-ए-मुबारक

मू-हा-ए-मुबारक थे फ़ज़ाओं में परेशाँ

कहते थे वो बाहम कि हरीफ़ान-ए-सियह-रू

कुफ़्फ़ार हैं बद-ख़ू

ज़िंदीक़ हैं मलऊन हैं बनते हैं मुसलमाँ

हातिफ़ ने कहा रो के कि ऐ रब्ब-ए-समावात!

ला-रेब सरासर हैं बजा दोनों के फ़तवात

ख़िल्क़त है बहुत उन के अज़ाबों से हिरासाँ

अब उन की हों अमवात!

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