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अबद - फ़हमीदा रियाज़ कविता - Darsaal

अबद

ये कैसी लज़्ज़त से जिस्म शल हो रहा है मेरा

ये क्या मज़ा है कि जिस से है उज़्व उज़्व बोझल

ये कैफ़ क्या है कि साँस रुक रुक के आ रहा है

ये मेरी आँखों में कैसे शहवत-भरे अँधेरे उतर रहे हैं

लहू के गुम्बद में कोई दर है कि वा हुआ है

ये छूटती नब्ज़, रुकती धड़कन, ये हिचकियाँ सी

गुलाब ओ काफ़ूर की लपट तेज़ हो गई है

ये आबनूसी बदन, ये बाज़ू, कुशादा सीना

मिरे लहू में सिमटता सय्याल एक नुक्ते पे आ गया है

मिरी नसें आने वाले लम्हे के ध्यान से खिंच के रह गई हैं

बस अब तो सरका दो रुख़ पे चादर

दिए बुझा दो

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