आलम-ए-बर्ज़ख़
ये तो बर्ज़ख़ है यहाँ वक़्त की ईजाद कहाँ
इक बरस था कि महीना हमें अब याद कहाँ
वही तपता हुआ गर्दूं वही अँगारा ज़मीं
जा-ब-जा तिश्ना ओ आशुफ़्ता वही ख़ाक-नशीं
शब-गराँ ज़ीस्त-गराँ-तर ही तो कर जाती थी
सूद-ख़ोरों की तरह दर पे सहर आती थी
ज़ीस्त करने की मशक़्क़त ही हमें क्या कम थी
मुस्ताज़ाद उस पे पिरोहित का जुनून-ए-ताज़ा
सब को मिल जाए गुनाहों का यहीं ख़म्याज़ा
ना-रवा-दार फ़ज़ाओं की झुलसती हुई लू!
मोहतसिब कितने निकल आए घरों से हर सू
ताड़ते हैं किसी चेहरे पे तरावत तो नहीं
कोई लब नम तो नहीं बशरे पे फ़रहत तो नहीं
कूचा कूचा में निकाले हुए ख़ूनी दीदे
गुर्ज़ उठाए हुए धमकाते फिरा करते हैं
नौ-ए-आदम से बहर-तौर रिया के तालिब
रूह बे-ज़ार है क्यूँ छोड़ न जाए क़ालिब
ज़िंदगी अपनी इसी तौर जो गुज़री 'ग़ालिब'
हम भी क्या याद करेंगे कि ख़ुदा रखते थे
(1509) Peoples Rate This