सब्ज़ रुतों में क़दीम घरों की ख़ुशबू
जिन गलियों का सूरज
रस्ता भूल गया हो
उन में किसी भी आहट का
कोई गीत नहीं गूँजा करता
बोसीदा दरवाज़े
खिड़कियाँ
बल खाते चोबी ज़ीनों पर
नाचती रहती है वीरानी
गर्द-ओ-ग़ुबार में डूबे कमरे
आपस में बातें करते हैं
बंद दरीचे
साँपों जैसी आँखों से
दूर-दराज़ को जाने वाली
सब्ज़ रुतों की यादों में
रोते रोते सो जाते हैं
उन सब लोगों की यादों में
जिन की जिस्मों की ख़ुशबू को
सैंत के रखने वाले लम्हे
माह-ओ-साल की गर्द में दबते जाते हैं
बंद घरों की ख़ुशबू से
ख़ामोशी और तंहाई मौत की बातें करते हैं
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