क़िस्सा तमाम
ख़ाक में ख़ाक मिली
और हुआ क़िस्सा तमाम
आग में आग मिले तो भड़के
आब में आब मिले तो मचले
ख़ाक में ख़ाक मिले
और हो सब क़िस्सा तमाम
जैसे साए पे गिरा हो साया
जैसे छा जाए शाम
गर्म पुर-शोर से दिन का ये भयानक अंजाम
वक़्त बे-रहम
ग़ज़बनाक
बला का सफ़्फ़ाक
वक़्त वो सैल-ए-रवाँ
जिस के आगे जो चले वो भी मरे
जिस से पीछे जो रहे वो भी मरे
और वो वक़्त की तस्ख़ीर को निकला था कभी
फिर वो रस्ते में रहा
शाम हुई
देर हुई
ख़ाक में ख़ाक मिली
उस को मालूम था ''रेत आईना है''
आईना कैसा है किरची किरची
धूप ऐसी कि मुंडेरों से गिरी जाती है
ख़्वाब से रंग चुराना
आग से ख़ुद को बचाना कोई आसाँ तो नहीं
वक़्त से आगे निकलना होगा
सो वो निकला और फिर
रंग में रंग मिला
आग से आग जली
ख़ाक में ख़ाक मिली
ज़िंदगी खुल के हँसी
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