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क़िस्सा तमाम - फ़हीम शनास काज़मी कविता - Darsaal

क़िस्सा तमाम

ख़ाक में ख़ाक मिली

और हुआ क़िस्सा तमाम

आग में आग मिले तो भड़के

आब में आब मिले तो मचले

ख़ाक में ख़ाक मिले

और हो सब क़िस्सा तमाम

जैसे साए पे गिरा हो साया

जैसे छा जाए शाम

गर्म पुर-शोर से दिन का ये भयानक अंजाम

वक़्त बे-रहम

ग़ज़बनाक

बला का सफ़्फ़ाक

वक़्त वो सैल-ए-रवाँ

जिस के आगे जो चले वो भी मरे

जिस से पीछे जो रहे वो भी मरे

और वो वक़्त की तस्ख़ीर को निकला था कभी

फिर वो रस्ते में रहा

शाम हुई

देर हुई

ख़ाक में ख़ाक मिली

उस को मालूम था ''रेत आईना है''

आईना कैसा है किरची किरची

धूप ऐसी कि मुंडेरों से गिरी जाती है

ख़्वाब से रंग चुराना

आग से ख़ुद को बचाना कोई आसाँ तो नहीं

वक़्त से आगे निकलना होगा

सो वो निकला और फिर

रंग में रंग मिला

आग से आग जली

ख़ाक में ख़ाक मिली

ज़िंदगी खुल के हँसी

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