मिलन के ब'अद आती है जुदाई
नरक भी स्वर्ग से कितना निकट है
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हम अहल-ए-ग़म को हक़ारत से देखने वालो
जाएँगे एक रोज़ समुंदर की गोद में
शाम ख़ामोश है पेड़ों पे उजाला कम है
रस्ते में 'फहीम' उस की तबीअत का बिगड़ना
किसी के दर पे सज्दा करते करते
बंद कमरे में तिरा दर्द न बुझ जाए कहीं
कितने तूफ़ानों से हम उलझे तुझे मालूम क्या
मरघट पथ पर देख के हम को जाने क्या क्या सोचें वो
वाक़िफ़ कहाँ ज़माना हमारी उड़ान से
तेरी यादें हो गईं जैसे मुक़द्दस आयतें