दरख़्त-ए-जाँ पर अज़ाब-रुत थी न बर्ग जागे न फूल आए
दरख़्त-ए-जाँ पर अज़ाब-रुत थी न बर्ग जागे न फूल आए
बहार-वादी से जितने पंछी इधर को आए मलूल आए
नशात-ए-मंज़िल नहीं तो उन को कोई सा अज्र-ए-सफ़र ही दे दो
वो रह-नवर्द-ए-रह-ए-जुनूँ जो पहन के राहों की धूल आए
वो सारी ख़ुशियाँ जो उस ने चाहीं उठा के झोली में अपनी रख लीं
हमारे हिस्से में उज़्र आए जवाज़ आए उसूल आए
अब ऐसे क़िस्से से फ़ाएदा क्या कि कौन कितना वफ़ा-निगर था
जब उस की महफ़िल से आ गए और सारी बातें ही भूल आए
वफ़ा की नगरी लुटी तो उस के असासों का भी हिसाब ठहरा
किसी के हिस्से में ज़ख़्म आए किसी के हिस्से में फूल आए
ब-नाम-ए-फ़स्ल-ए-बहार 'आज़र' वो ज़र्द पत्ते ही मो'तबर थे
जो हँस के रिज़्क़-ए-ख़िज़ाँ हुए हैं जो सब्ज़ शाख़ों पे झूल आए
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