किस क़दर मसअला-ए-शाम-ओ-सहर बदला है
किस क़दर मसअला-ए-शाम-ओ-सहर बदला है
जब ज़रा ज़ाविया-ए-फ़िक्र-ओ-नज़र बदला है
सम्त-ए-मंज़िल का तअय्युन नहीं दो गाम की बात
कितने मोड़ आए हैं जब तर्ज़-ए-सफ़र बदला है
अपनी आवाज़ पे हम चौंक उठे हैं ख़ुद भी
इक ज़रा लहजा-ए-एहसास अगर बदला है
दश्त में भी कभी इस तरह न जी लगता था
अब के दीवानगी बदली है कि घर बदला है
आ गया है रसन-ओ-दार के मामूल में फ़र्क़
जब कभी ज़ाब्ता-ए-गर्दन-ओ-सर बदला है
अब वो यक-रंगी-ए-माहौल की तल्ख़ी तो नहीं
हम ने मय बदली न हो जाम मगर बदला है
इंक़लाब आया है इस तरह भी घर में अक्सर
दर से दीवार न दीवार से दर बदला है
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