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जिस्म ही पामाल हो जाए तो सर क्या कीजिए - एज़ाज़ अफ़ज़ल कविता - Darsaal

जिस्म ही पामाल हो जाए तो सर क्या कीजिए

जिस्म ही पामाल हो जाए तो सर क्या कीजिए

जान तो हम को भी प्यारी है मगर क्या कीजिए

देखते रहिए सहर के ख़्वाब झूटे ही सही

मश्ग़ला ये भी न हो तो रात भर क्या कीजिए

गुफ़्तुगू से रफ़्ता रफ़्ता ख़ामुशी तक आ गए

और हर्फ़-ए-मुद्दआ' को मुख़्तसर क्या कीजिए

हर नज़र तुर्फ़ा तमाशा हर क़दम मंज़िल नई

सैर से फ़ुर्सत नहीं मिलती सफ़र क्या कीजिए

कौन जाने कितने बाज़ू नज़्र-ए-तूफ़ाँ हो गए

फूल फल गिनिए शुमार-ए-बाल-ओ-पर क्या कीजिए

जज़्बा-ए-आबाद-कारी लाएक़-ए-तहसीं मगर

पत्थरों के शहर में शीशों के घर क्या कीजिए

सख़्त-जानी अपनी क़िस्मत ज़ंग ख़ंजर का नसीब

कश्मकश में जान है 'अफ़ज़ल' मगर क्या कीजिए

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