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अब सराब के चश्मे मौजज़न नहीं होते - एज़ाज़ अफ़ज़ल कविता - Darsaal

अब सराब के चश्मे मौजज़न नहीं होते

अब सराब के चश्मे मौजज़न नहीं होते

ख़ुश्क हो गए शायद तिश्नगी के सब सोते

नींद में भी चादर का इतना पास है तुम को

कुछ तो पाँव फैलाओ इस तरह नहीं सोते

कैसी रात आई है नींद उड़ गई सब की

मंज़िलें थपकती हैं क़ाफ़िले नहीं सोते

ख़्वाब ख़ुद हक़ीक़त हैं आँख खोल कर देखो

किस ने कह दिया तुम से ख़्वाब सच नहीं होते

चाक हो गया दामन हाथ हो गए ज़ख़्मी

एक दाग़-ए-रुस्वाई और किस तरह धोते

गिर्या-ओ-तबस्सुम तो हैं नक़ाब चेहरों के

आइने नहीं हँसते आइने नहीं रोते

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