उजाले तेल छिड़कने लगे उजालों पर
उजाले तेल छिड़कने लगे उजालों पर
अजीब वक़्त पड़ा है चराग़ वालों पर
तुम्हारा आलम-ए-मस्ती ढका-छुपा ही सही
मिरी निगाह है टूटे हुए प्यालों पर
तुम्हारे ज़ेहन में जो आज चुभ रहे होंगे
मैं कल से सोच रहा हूँ उन्हीं सवालों पर
न उठ सका तिरे तर्ज़-ए-ख़िराम से पर्दा
हवाएँ डाल गईं ख़ाक पाएमालों पर
मुहाकमा न करें आप अपनी बातों का
ये काम छोड़ दिया जाए सुनने वालों पर
मुसल्लिमात से क्यूँ क़स्द-ए-इंहिराफ़ क्या
अक़ीदे टूट पड़े हैं मिरे सवालों पर
ये क्या ज़रूर कि रुख़ सब का एक जानिब हो
फ़ज़ा की क़ैद लगाओ न उड़ने वालों पर
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