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लहू ने क्या तिरे ख़ंजर को दिलकशी दी है - एज़ाज़ अफ़ज़ल कविता - Darsaal

लहू ने क्या तिरे ख़ंजर को दिलकशी दी है

लहू ने क्या तिरे ख़ंजर को दिलकशी दी है

कि हम ने ज़ख़्म भी खाए हैं दाद भी दी है

लिबास छीन लिया है बरहनगी दी है

मगर मज़ाक़ तो देखो कि आँख भी दी है

हमारी बात पे किस को यक़ीन आएगा

ख़िज़ाँ में हम ने बशारत बहार की दी है

धरा ही क्या था तिरे शहर-ए-बे-ज़मीर के पास

मिरे शुऊ'र ने ख़ैरात-ए-आगही दी है

हयात तुझ को ख़ुदा और सर-बुलंद करे

तिरी बक़ा के लिए हम ने ज़िंदगी दी है

कहाँ थी पहले ये बाज़ार-ए-संग की रौनक़

सर-ए-शिकस्ता ने कैसी हमाहमी दी है

चराग़ हूँ मिरी किरनों का क़र्ज़ है सब पर

ब-क़द्र-ए-ज़र्फ़ नज़र सब को रौशनी दी है

चली न फिर किसी मज़लूम के गले पे छुरी

हमारी मौत ने कितनों को ज़िंदगी दी है

तिरे निसाब में दाख़िल थी आस्ताँ-बोसी

मिरे ज़मीर ने ता'लीम-ए-सरकशी दी है

कटेगी उम्र सफ़र जादा-ए-आफ़रीनी में

तिरी तलाश ने तौफ़ीक़-ए-गुमरही दी है

हज़ार दीदा-तसव्वुर हज़ार रंग-ए-नज़र

हवस ने हुस्न को बिसयार चेहरगी दी है

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