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हर एक गाम पे आसूदगी खड़ी होगी - एज़ाज़ अफ़ज़ल कविता - Darsaal

हर एक गाम पे आसूदगी खड़ी होगी

हर एक गाम पे आसूदगी खड़ी होगी

सफ़र की आख़िरी मंज़िल बहुत कड़ी होगी

ये अपने ख़ून की लहरों में डूबती कश्ती

भँवर से भाग के साहिल पे जा पड़ी होगी

मुसाफ़िरो ये ख़लिश नोक-ए-ख़ार की तो नहीं

ज़रूर पाँव तले कोई पंखुड़ी होगी

तिरे ख़ुलूस-ए-तहफ़्फ़ुज़ में शक नहीं लेकिन

हवा में रेत की दीवार गिर पड़ी होगी

निज़ाम-ए-क़ैद-ए-मुसलसल में कैसी आज़ादी

खुले जो पाँव तो हाथों में हथकड़ी होगी

तिरे फ़रार की सरहद क़रीब थी लेकिन

मिरी तलाश ज़रा दूर जा पड़ी होगी

तुम्हारे दौर-ए-मुसलसल की मुंज़बित तारीख़

हमारे रक़्स-ए-मुसलसल की इक कड़ी होगी

मिरे गुमान की बुनियाद खोखली निकली

तिरे यक़ीं की इमारत कहाँ खड़ी होगी

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