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दर्स-ए-आराम मेरे ज़ौक़-ए-सफ़र ने न दिया - एज़ाज़ अफ़ज़ल कविता - Darsaal

दर्स-ए-आराम मेरे ज़ौक़-ए-सफ़र ने न दिया

दर्स-ए-आराम मेरे ज़ौक़-ए-सफ़र ने न दिया

मुझ को मंज़िल पे भी ज़ालिम ने ठहरने न दिया

रक़्स करती रही तूफ़ान में कश्ती मेरी

मेरी हिम्मत ने मुझे पार उतरने न दिया

ज़िंदगी मौत से बद-तर थी पर ऐ वा'दा-ए-दोस्त

लज़्ज़त-ए-कश्मकश-ए-शौक़ ने मरने न दिया

मुल्तफ़ित कल नज़र आती थीं निगाहें उन की

कहीं धोका तो मुझे मेरी नज़र ने न दिया

यूँ तो रहने को परेशानी-ए-ख़ातिर ही रही

तेरी ज़ुल्फ़ों को मगर मैं ने बिखरने न दिया

फूल तो फूल थे ऐ ख़ाना-बर-अंदाज़-ए-चमन

तू ने काँटों से भी दामन मुझे भरने न दिया

इन्हीं अल्फ़ाज़ में है मेरी कहानी 'अफ़ज़ल'

ग़म ने जीने न दिया शौक़ ने मरने न दिया

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