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आँगन आँगन ख़ाना-ख़राबी हँसती है मे'मारों पर - एज़ाज़ अफ़ज़ल कविता - Darsaal

आँगन आँगन ख़ाना-ख़राबी हँसती है मे'मारों पर

आँगन आँगन ख़ाना-ख़राबी हँसती है मे'मारों पर

पत्थर की छत ढाल रहे हैं शीशे की दीवारों पर

ज़ख़्म लगे तो बस ये जानो चोट पड़ी नक़्क़ारों पर

आज लगा दो जान की बाज़ी टूट पड़ो तलवारों पर

अहल-ए-जुनूँ की लाला-कारी मौसम की पाबंद नहीं

फ़स्ल-ए-ख़िज़ाँ में फूल खुले हैं ज़िंदाँ की दीवारों पर

दिल के उफ़ुक़ से टूट गए हैं कितने सूरज कितने चाँद

टपके हैं दो-चार सितारे जब तेरे रुख़्सारों पर

कहते हैं ख़ुश-क़ामत किस को देख निकल कर गुलशन से

कैसे कैसे सर्व-ए-रा'ना चलते हैं अँगारों पर

इस साहिल पर नाव पड़ी है उस साहिल पर माँझी है

बीच नदी में तैरती लाशो पुल बन जाओ धारों पर

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