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है नहीं कोई नाख़ुदा दिल का - एलिज़ाबेथ कुरियन मोना कविता - Darsaal

है नहीं कोई नाख़ुदा दिल का

है नहीं कोई नाख़ुदा दिल का

दिल ही है एक आसरा दिल का

चार-सू बे-ख़ुदी में फिरता है

कुछ ठिकाना नहीं रहा दिल का

रस्म-ए-दुनिया को क्यूँ ये मानेगा

है अलग जग से क़ाएदा दिल का

शेख़-ओ-पण्डित को कोई समझाए

रब से रहता है राब्ता दिल का

राह-ए-इंसानियत ही अव्वल है

है यक़ीनन ये फ़ल्सफ़ा दिल का

दो-जहाँ भी यहाँ समा जाएँ

कितना फैला है दायरा दिल का

लब तलक आ के बात ही बदली

क्या करे लफ़्ज़ तर्जुमा दिल का

अक़्ल कब आएगी तुम्हें 'मोना'

मानते क्यूँ हो तुम कहा दिल का

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