राह-ए-तलब में अहल-ए-दिल जब हद-ए-आम से बढ़े
राह-ए-तलब में अहल-ए-दिल जब हद-ए-आम से बढ़े
कश्मकश-ए-हयात के और भी हौसले बढ़े
किस से ये पूछिए भला तिश्ना-लबों को क्या मिला
कहने को यूँ तो रोज़ ही सैकड़ों मय-कदे बढ़े
कोशिश-ए-पैहम आफ़रीं मंज़िल अब आ गई क़रीब
मुज़्दा हो आरज़ू-ए-दिल पाँव के आबले बढ़े
आते ही उस ने बज़्म में रुख़ पे नक़ाब डाल ली
हाए वो मंज़र-ए-हसीं जैसे दिए जले बढ़े
वक़्त की आज़माइशें लाती हैं ज़ीस्त पर निखार
फूलों को देख लीजिए काँटों में जो पले-बढ़े
ताबिश-ए-हुस्न-ए-यार ने छीन ली ताब-ए-अर्ज़-ए-शौक़
जितने क़रीब आए वो उतने ही फ़ासले बढ़े
राहों के रुख़ बदल गए मंज़िलें दूर हो गईं
ख़िज़्र के ए'तिबार पर जब कभी क़ाफ़िले बढ़े
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