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मदावा-ए-जुनूँ सैर-ए-गुलिस्ताँ से नहीं होता - एजाज़ वारसी कविता - Darsaal

मदावा-ए-जुनूँ सैर-ए-गुलिस्ताँ से नहीं होता

मदावा-ए-जुनूँ सैर-ए-गुलिस्ताँ से नहीं होता

रफ़ू-ए-चाक-ए-दिल तार-ए-गरेबाँ से नहीं होता

ब-जुज़ मंज़िल कहीं राहत नहीं मिलती मुसाफ़िर को

इलाज-ए-आबला-पाई बयाबाँ से नहीं होता

हिजाब-ए-दोस्त ने बख़्शा है वो लुत्फ़-ए-यक़ीं दिल को

कि ये आसूदा अब हुस्न-ए-नुमायाँ से नहीं होता

जिला होती है ज़र्फ़-ए-ज़ीस्त पर तन्क़ीद-ए-दाना से

मुदावा नफ़्स का चश्म-ए-सना-ख़्वाँ से नहीं होता

ब-क़द्र-ए-ज़र्फ़ फ़ितरत करती है बालीदगी दिल की

ये वो कार-ए-अहम है जो दबिस्ताँ से नहीं होता

किया है रू-शनास-ए-अफ़्व मैं ने तेरी रहमत को

लिया वो काम इस्याँ से जो ईमाँ से नहीं होता

जिगर के दाग़ ही मरक़द में काम 'एजाज़' आएँगे

उजाला ऐसी ज़ुल्मत में चराग़ाँ से नहीं होता

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