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किसी के शिकवा-हा-ए-जौर से वाक़िफ़ ज़बाँ क्यूँ हो - एजाज़ वारसी कविता - Darsaal

किसी के शिकवा-हा-ए-जौर से वाक़िफ़ ज़बाँ क्यूँ हो

किसी के शिकवा-हा-ए-जौर से वाक़िफ़ ज़बाँ क्यूँ हो

ग़म-ए-दिल आग तो लग ही चुकी लेकिन धुआँ क्यूँ हो

मोहब्बत में विसाल-ओ-हिज्र की तमईज़ क्या मा'नी

बिसात-ए-इश्क़ पर बाज़ीचा-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ क्यूँ हो

जबीं साइल थी नादिम है मगर ऐ सज्दा-ए-आख़िर

मिरी महरूमियों से बे-तअल्लुक़ आस्ताँ क्यूँ हो

ख़ुदावंदा चमन में तो नशेमन ही नशेमन हैं

नज़र में बर्क़ की सिर्फ़ एक शाख़-ए-आशियाँ क्यूँ हो

रिवायात-ए-कुहन को अज़्म-ए-नौ ख़ातिर में क्या लाए

ज़मीर-ए-कारवाँ पाबंद-ए-मीर-ए-कारवाँ क्यूँ हो

ये माना एक आँसू है मगर ऐ सई-ए-ज़ब्त-ए-ग़म

सर-ए-मिज़्गाँ ये इक आँसू भी दिल का तर्जुमाँ क्यूँ हो

ज़माना जब भुला ही बैठा 'एजाज़'-ए-हज़ीं तुझ को

कोई अब मेहरबाँ क्यूँ हो कोई ना-मेहरबाँ क्यूँ हो

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