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कार-ए-ख़ैर इतना तो ऐ लग़्ज़िश-ए-पा हो जाता - एजाज़ वारसी कविता - Darsaal

कार-ए-ख़ैर इतना तो ऐ लग़्ज़िश-ए-पा हो जाता

कार-ए-ख़ैर इतना तो ऐ लग़्ज़िश-ए-पा हो जाता

पाए साक़ी पे ही इक सज्दा अदा हो जाता

वो तो ये कहिए कि मजबूर है नज़्म-ए-हस्ती

वर्ना हर बंदा-ए-मग़रूर ख़ुदा हो जाता

क़ाफ़िले वाले थे महरूम-ए-बसीरत वर्ना

मेरा हर नक़्श-ए-क़दम राह-नुमा हो जाता

ग़म के मारों पे भी ऐ दावर-ए-हश्र एक नज़र

आज तो फ़ैसला-ए-अहल-ए-वफ़ा हो जाता

यूँ अंधेरों में भटकते न कभी अहल-ए-ख़िरद

कोई दीवाना अगर राह-नुमा हो जाता

दिल तिरी नीम-निगाही का तो मम्नून सही

दर्द अभी कम है ज़रा और सिवा हो जाता

लज़्ज़त-ए-ग़म से है ज़िद फ़ितरत-ए-ग़म को शायद

दर्द ही दर्द न क्यूँ दर्द दवा हो जाता

सुन के भर आता अगर उन का भी दिल ऐ 'एजाज़'

क़िस्सा-ए-दर्द का उन्वान नया हो जाता

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