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दिल बुझ गया तो गर्मी-ए-बाज़ार भी नहीं - एजाज़ वारसी कविता - Darsaal

दिल बुझ गया तो गर्मी-ए-बाज़ार भी नहीं

दिल बुझ गया तो गर्मी-ए-बाज़ार भी नहीं

अब ज़िक्र-ए-बादा-ओ-लब-ओ-रुख़सार भी नहीं

अपना था ख़ल्वतों में कभी परतव-ए-जमाल

क़िस्मत में अब तो साया-ए-दीवार भी नहीं

शिकवा ज़बाँ पे फूल से अहबाब का ग़लत

ऐ दोस्त मुझ को तो गिला-ए-ख़ार भी नहीं

आया न रास आप को ऐ शैख़ रोज़-ए-हश्र

और लुत्फ़ ये है आप गुनाहगार भी नहीं

क़ाएम हूँ अपनी तौबा पे मैं आज भी मगर

कोई हसीं पिलाए तो इंकार भी नहीं

क्या कीजिए नुमाइश-ए-ग़म ख़ून-ए-दिल के बा'द

अब आरज़ू-ए-दीदा-ए-ख़ूँबार भी नहीं

ऐलान-ए-बे-ख़ुदी है हर इक क़तरा-ए-लहू

मेरे जुनूँ की हद रसन-ओ-दार भी नहीं

नूर-ए-सहर के नाम पे भटकें न क़ाफ़िले

दर-अस्ल अभी तो सुब्ह के आसार भी नहीं

वाइज़ ख़याल-ए-तौबा बजा है मगर अभी

मैं तो ब-क़द्र-ए-ज़र्फ़ गुनाहगार भी नहीं

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